Read in App

DevBhoomi Insider Desk
• Mon, 30 Jan 2023 1:01 pm IST


क्या मौत की सही तस्वीर जानते हैं आप?


दिल्ली में अपनी प्रेमिका श्रद्धा के 36 टुकड़े करने वाला आफताब अब कानून की पढ़ाई करना चाहता है। इस हत्याकांड के तकरीबन महीने भर बाद मीडिया में छपी एक खबर से दुनिया को इसका पता चला। पिछले साल के अंत में दिल्ली में हुई इस हत्या ने देश भर की मीडिया को तकरीबन दो हफ्ते तक बिजी रखा। बेशक, यह ऐसी वारदात थी, जिसे सारे पहलू पब्लिक के सामने आने चाहिए थे, लेकिन इस पर भी गौर करना चाहिए कि इसी वक्फे में दिल्ली में ही औसतन 80 लोगों ने खुदकुशी की, लगभग इतने ही सड़क हादसों में मारे गए। इस पर न तो बहस हुई, न ही मीडिया में चिंता जताई गई। सवाल उठता है कि क्या मीडिया मौत की हकीकत बदल रहा है?

पिछले पांच साल का औसत निकालें सिर्फ दिल की बीमारी से भारत में रोजाना औसतन 70 से अधिक मौतें होती हैं, यानी हर घंटे दो लोग। WHO का 2019 का डेटा बताता है कि अल्जाइमर्स और डिमेंशिया जैसी बीमारी दुनिया में मौत की सातवीं सबसे बड़ी वजह है। वहीं, पिछले दो दशकों में आतंकवाद से होने वाली मौतें दुनिया की कुल मौतों का 0.05 फीसदी भी नहीं हैं।

मौत की बड़ी वजहें तो दूसरी हैं। मसलन, दुनिया भर में सालाना 8 लाख लोग आत्महत्या करते हैं, यानी हर 40 सेकंड में एक। भारत में 2021 में 1.64 लाख लोगों ने खुदकुशी की, जो 2020 की तुलना में 7.4 फीसदी ज्यादा थी। NCRB के आंकड़े बताते हैं कि 2021 में भारत में 4 लाख से भी अधिक लोगों ने सड़क हादसों में जान गंवाई। मगर मीडिया में हत्या की खबरें छाई रहीं, जो खुदकुशी और सड़क हादसों से हुई मौतों का एक-चौथाई भी नहीं हैं।

मोटापा इस समय दुनिया की ही नहीं, भारत की भी बड़ी महामारी है, बल्कि कहीं-कहीं तो कुपोषण से भी ज्यादा। आवर वर्ल्ड इन डेटा डॉट ओआरजी के मुताबिक, 1990 से लेकर 2019 तक दुनिया में हुई सारी मौतों का औसत निकालें तो हर साल लगभग 5.6 करोड़ लोगों की मौत होती है। लांसेट के 2019 के आंकड़ों के मुताबिक दिल की बीमारी ने 1.86 करोड़, कैंसर ने 1 करोड़, सांस की बीमारी ने 40 लाख, नवजात शिशुओं में डिसऑर्डर ने 18 लाख, डिमेंशिया ने 16 लाख, डायरिया ने 15 लाख और टीबी ने 11 लाख से भी अधिक लोगों की जान ले ली। वहीं आग से 1.11 लाख, आतंकवाद से लगभग 63 हजार, हीट और कोल्ड वेव से 47 हजार तो प्राकृतिक आपदाओं से 6 हजार लोगों की मौत हुई। मगर क्या मीडिया इनके पीछे ठीक उसी तरह से पड़ा, जैसे कि वह रूस-यूक्रेन युद्ध के पीछे पड़ा है?

कोई भी पूछ सकता है कि इतने बड़े नंबर्स के सामने मीडिया छोटी संख्याओं को बड़ा करके क्यों दिखाता है? उसकी भी वजहें हैं। बीमारी हमारे रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा बन चुकी है। मनोवैज्ञानिक रूप से मनुष्य इसके लिए बार-बार टोका जाना पसंद नहीं करता। बड़ी बात यह कि रोजमर्रा की चीजें खबर नहीं बनती। खबर वही बनती है, जो चीजें रोज-रोज न होती हों और जिनमें ‘शॉक वैल्यू’ हो। खासतौर पर आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देने वाले यह बात बखूबी समझते हैं। इसलिए वे हमले के लिए ऐसी जगहें चुनते हैं, जिनसे उन्हें अधिक से अधिक प्रचार मिले।

जाहिर है कि मीडिया की प्रायॉरिटी कुछ और होनी चाहिए। ऐसे में बीच के ऐसे कुछ रास्ते हैं, जिनसे बात बन सकती है।पहला है वैल्यू एडिशन। मसलन, शहर में हुई आत्महत्या की खबर में उस साल सहित पिछले पांच सालों में हुई आत्महत्याओं की संख्या दी जा सकती है। इसके साथ हत्या के भी आंकड़े दिए जाने चाहिए। यही चीज हत्या की खबरों में भी दिखाई जा सकती है।दूसरा है प्रेजेंटेशन। आज पढ़ने से अधिक देखने को अधिक वरीयता दी जाती है। देखने में ये चीजें अलग, व्यवस्थित और हाइलाइटेड हों।तीसरा है भागीदारी। मीडिया हत्या को लेकर कोई आयोजन नहीं कर सकता, मगर आत्महत्या रोकने की खातिर वह लोगों को जागरूक और उन्हें जोड़ने की कोशिश कर सकता है।लोग अपने काम की बातें जानना चाहते हैं। जब वे जलवायु परिवर्तन को लेकर इतने चिंतित हो सकते हैं तो यकीनन डायबिटीज को लेकर इससे कहीं ज्यादा फिक्रमंद होंगे। मीडिया को नाटकों से ज्यादा लोगों की असल चिंताओं से जुड़ना होगा, बहस मौत की बड़ी वजहों पर शुरू करनी होगी। सबसे बड़ी बात कि आंकड़ों के उस पिरामिड को सीधा करके दिखाना होगा, जिसे पलटकर उसने मौत की हकीकत ही बदल डाली है।

सौजन्य से : नवभारत टाइम्स